Narges Mohammadi: इंसानियत, हकूक, इंसाफ़ और आज़ादी की मांग करना क्या आज के दौर में भी इतना बड़ा गुनाह है कि किसी औरत को इसके लिए 31 साल की क़ैद और 154 कोड़ों की सज़ा सुनाई जाए. ये किसी फिल्म की स्क्रीप्ट नहीं बल्कि हक़ीक़त है इस मुल्क की जहां इस्लामिक सत्ता है. हम बात कर रहे हैं ईरान की, वहां की सरकार से आंख से आंख मिलाकर महिला आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली महिला एक्टीविस्ट नरगिस मोहम्मदी की.
नार्वे की नोबेल कमेटी ने नरगिस मोहम्मदी को 2023 के नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया है. अपने सम्मान पत्र में कमेटी ने कहा है कि ऐसा ईरान में उत्पीड़न के खिलाफ़ उनकी लड़ाई और सभी की स्वतंत्रता और मानवाधिकार को बढ़ावा देने के उनके संघर्ष के लिए किया गया है. नरगिस ने ईरान में मानवाधिकारों को बढ़ावा देने के साथ सभी की आज़ादी को लेकर लंबा संघर्ष किया है और इसी संघर्ष के लिए उन्हें नोबेल के शांति पुरुस्कार से नवाज़ा गया है.
कौन है नरगिस मोहम्मदी?
नरगिस मोहम्मदी उस मज़बूत इरादों वाली बहादुर औरत का नाम है जिसे ईरान सरकार 13 बार अरेस्ट करती है, लेकिन नरगिस अपने इरादों से ज़रा सा भी डिगती नहीं हैं, 51 साल की नरगिस को 31 साल जेल और 154 कोड़ों की सज़ा सुनाई गई. पूरी दुनिया जब नरगिस के नाम के हौसले, हिम्मत के कसीदे पढ़ रही है और उन्हें सलाम कर रही है उस वक्त भी वो जेल में बंद हैं. नोबेल पुरस्कार समिति मानती है कि नरगिस मोहम्मदी को अपने संघर्ष की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है.
नरगिस मोहम्मदी ने महिला अधिकारों के लिए काम 1990 के दशक से शुरु किया, तब वो फिजिक्स की स्टूडेंट थीं और उन्होंने समानता और महिला अधिकारों के लिए काम शुरु किया. ईरान में महिलाएं समानता के अधिकारों और अपनी आज़ादी के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रही हैं. 21 अप्रैल 1972 को कुर्दिस्तान ईरान के जंजन शहर में जन्म लेने वाली नरगिस मानवाधिकार कार्यकर्ता और डिफेंडर ऑफ ह्यूमन राइट्स सेंटर की उपाध्यक्ष हैं. ईरान की दमनकारी सरकार के खिलाफ़ मोर्चा खोलने वाली नरगिस को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. वो आठ साल से अपनी बेटियों को देख तक नहीं पाई हैं. ईरान की औरतों और उनके हक़ के लिए आवाज़ उठाने की वजह से ही वो लंबे वक्त से जेल में हैं. नरगिस की जुड़वा बेटियां अली और कियाना है, जो अपनी पिता तगी रहमानी के साथ लंदन में रहती हैं. तगी रहमानी भी जाने माने एक्टिविस्ट हैं और ईरानी सरकार उन्हें भी 14 साल की सज़ा दे चुकी है.
किताब के लिए मिल चुका है पुरस्कार
उन्होंने ईरान में सामाजिक सुधारों के लिए बहस करते हुए कई लेख लिखे हैं. नरगिस ने एक किताब भी लिखी है, जिसका नाम व्हाइट टॉर्चर है. उनकी किताब ‘व्हाइट टॉर्चर: इंटरव्यूज़ विद ईरानी वूमेन प्रिज़नर्स’ ने अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव और मानवाधिकार फोरम में रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के लिए एक पुरस्कार भी जीता. मोहम्मदी नोबेल शांति पुरस्कार जीतने वाली 19वीं महिला हैं और 2003 में शिरीन एबादी के बाद यह पुरस्कार जीतने वाली दूसरी ईरानी महिला हैं. 122 साल के इतिहास में यह पांचवीं बार है, जब शांति पुरस्कार किसी ऐसे व्यक्ति को दिया गया है जो जेल में है या फिर घर में नजरबंद है. नरगिस ने सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार के लिए संघर्ष की वकालत की, ईरान में ये एक ऐसा मुद्दा है जिसके लिए देश में अक्सर उत्पीड़न, जेल की सज़ा, यातना और यहां तक की मौत की सज़ा तक का सामना करना पड़ता है. नरगिस मोहम्मदी को शांति पुरस्कार देने का नोबेल कमेटी का ये फैसला देश में महिलाओं के शुरू किए गए आज़ादी के आंदोलनों के एक साल बाद आया है.
महसा अमीनी की मौत और ईरान में आंदोलन
बीते साल सितम्बर 2022 में 22 साल की महसा अमीनी की मॉरल पुलिस की हिरासत में मौत के बाद ये आंदोलन शुरू हुए थे. जल्द ही पूरे देश में व्यापक विरोध प्रदर्शन फैल गए और औरतों की आज़ादी से लेकर सत्ता पलटने तक की मांग सामने आई. महिलाओं ने सार्वजनिक रूप से बाल कटवाए और हेड स्कार्फ़ की होली जलाई. प्रदर्शनकारियों ने “महिलाएं, ज़िंदगी, आज़ादी” के नारे लगाए. तेहरान में एविन जेल के भीतर नरगिस मोहम्मदी ने महसा अमिनी की मौत के बाद हुए विरोधों में प्रदर्शनकारियों का न सिर्फ समर्थन किया. बल्कि लोगों को इसके खिलाफ एकत्र करने के लिए जागरूक भी किया. जेल की सख्त परिस्थितियों में भी वह बाहरी दुनिया के साथ संवाद करने में कामयाब रहीं. न्यूयॉर्क टाइम्स ने महसा अमिनी की मौत की सालगिरह पर नरगिस का लेख प्रकाशित किया था. न्यूयॉर्क टाइम्स में उनके लेख का शीर्षक था- The more of us they lock up, the stronger we become (वे हममें से जितने ज्यादा लोगों को जेल में बंद करेंगे, हम उतने ही मजबूत होते जाएंगे).
फेसबुक पर सामाजिक कार्यकर्ता हफ़ीज़ किदवई लिखते हैं- कितना खूबसूरत लगता है कि आपके किये कामों के आगे दुनिया सर झुकाए. नरगिस मोहम्मदी ने अपने ही मुल्क में औरतों की इज़्ज़त, बराबरी और आज़ादी के लिए एक जंग लड़ी. जिसकी वजह से वह आज भी जेल में हैं, मगर दुनिया ने उनके कामों को नज़रंदाज़ नही किया और शांति का सबसे बड़ा नोबल पुरस्कार उन्हें देने की घोषणा की, यह हम सबके लिए खुशी की बात है.
इस घोषणा से हर वह व्यक्ति खुश होगा, जो अपने देश में मानवता के लिए काम कर रहा है. नरगिस अपनी ज़िंदगी को खूबसूरत तरीके से गुज़ार सकती थीं, वह चाहती आसानी से बेहतरीन नौकरी करतीं और अपने घर परिवार की फ़िक्र करती हुई, सुक़ून भरी जिंदगी गुज़ारती, मगर नहीं, उन्होंने सख्तियां सहने के रास्ता चुना. यह बतलाया कि सिर्फ अपने लिए जीना, जीना नही है. वह हर औरत की आज़ादी, बराबरी और उसकी ज़िन्दगी की मुस्कुराहट के लिए हुकूमत से भिड़ गईं. नतीजतन उन्हें सख़्त सजाएं दी गईं, कोड़ों से मारने का हुक्म हुआ, मगर वह रुकी नही, झुकी नहीं, माफ़ी नहीं मांगी.
1979 की क्रांति के बाद महिलाओं की स्थिति
1977 से मोहम्मद रज़ा के शासन के विरुद्ध काफी असंतोष बढ़ा जिसके कई कारण थे. इसमें एक था अमेरिका परस्ती या साम्राज्यवाद का पिट्ठू बनना और दूसरा मुद्रास्फीति के साथ व्यापक भ्रष्टाचार. 1979 के संघर्ष को इस्लामिक क्रांति या इन्कलाब-ए-इस्लामी कहा गया; इसमें महिलाओं की व्यापक हिस्सेदारी थी. वे सड़कों पर बहस करतीं, नारे लगातीं और प्रदर्शनों में पुरुषों के संग कन्धा से कन्धा मिलाकर लड़तीं. क्रांति सफल हुई तो रज़ा ईरान छोड़कर निर्वासन में गए.
जब आयातोल्ला खोमेनी ने शासन सम्भाला तब महिलाओं की आकांक्षाएं चरम पर थीं. पर उन्हें भारी निराशा हाथ लगी. इस्लामिक कट्टरपंथ दिन-ब-दिन मजबूत हुआ और औरतों को जो हक मिले थे, वापस छीन लिए गए. पारिवारिक सुरक्षा कानून रद्द हुआ- यानी अब पुरुष अपनी पत्नियों को मेल से तलाक दे सकते थे, उन्हें बच्चों का प्राकृतिक संरक्षक माना गया, पुरुषों को पत्नी के अलावा कितनी भी अस्थायी बीवियां रखने का हक मिला, मर्द अपने घर की औरतों को बाहर जाने से रोक सकते थे. महिलाओं से निर्णयकारी हक छीन लिया गया. हिजाब प्रथा पुनः लागू हुई और दकियानूसी विचारों का बोलबाला हो गया. धीरे-धीरे ईरान में औरतों की स्थिति बदहाल होती गई लेकिन वहां की औरतों ने हार नहीं मानी, वो लगातार अपने हक़ों के लिए, इंसाफ़ के लिए लड़ती रहीं.
कट्टरपंथी शासन के हिमायती लोग
ईरान में कट्टरपंथी इस्लामिक शासन की हिमायती पूरी दुनिया में मौजूद हैं. भारत में भी ईरान की कट्टरपंथी सरकार के हिमायती हैं, लेकिन ये वही लोग हैं जिनकी ज़ुबान ये कहते कहते नहीं थकती कि इस्लाम औरतों को बराबरी का हक़ देता है. लेकिन जब हम जैसी औरतें जो लगातार गैर बराबरी और भेदभाव के खिलाफ़ लिखती बोलती हैं वो भी निशाने पर आती हैं. जो कहते हैं कि इस्लाम में औरतों के साथ कोई जोर जबरदस्ती नहीं की गई है. भारत में हिजाब पहनने के लिए संघर्ष करने वाली औरतों के लिए कहा जाता है कि वो अपनी मर्ज़ी से पर्दा करती हैं, तो उनकों जबरन बेपर्दा नहीं किया जाना चाहिए. बिल्कुल जो अपनी मर्ज़ी से हिजाब पहन रही हैं उन्हें हिजाब हटाने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन फिर यही मर्ज़ी ईरान में या फिर हिंदुस्तान की उन मुस्लिम महिलाओं के लिए क्यों नहीं चलती, ईरान की औरतें अपनी मर्ज़ी से हिजाब नहीं पहनना चाहती हैं तो फिर वो गलत कैसे हो गईं. हम जब सोशल मीडिया पर लिखते हैं तो हमे सीधे बिकनी पहनने की सलाह दे दी जाती है.
नरगिस मोहम्मदी औरतों के लिए संघर्ष और हिम्मत का दूसरा नाम हैं. धर्म के नाम पर औरतों को काबू करने की कोशिश हमेशा से होती रही है. नरगिस को नोबेल का शांति पुरस्कार मिला और पूरी दुनिया उन्हें सलाम कर रही है. लेकिन महिलाओं के लिए संघर्ष का रास्ता बिल्कुल भी आसान नहीं है, क्योंकि नरगिस को मिला सम्मान कट्टरपंथियों की आंखों में चुभ रहा है. लेकिन औरतों ने हमेशा संघर्ष का रास्ता चुना है फिर उसके लिए उन्हें किसी भी तरह की मुश्किलात का सामना करना पड़े. नरगिस मोहम्मदी महिलाओं की हिम्मत हैं और हौसला हैं जो किसी भी तानाशाही सरकार की आंख से आंख मिलाकर अपना हक़ मांग रही हैं.