किस पैमाने में नापा जाता है भूख की तीव्रता को : दुर्गा प्रसाद पंडा

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22 जनवरी 1970 को बारिपदा में जन्मे दुर्गा प्रसाद पंडा ओड़िया और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखते हैं. कवि, लेखक, अनुवादक और समालोचक के रूप में दुर्गा प्रसाद समकालीन ओड़िया साहित्य का चर्चित नाम हैं. उनकी कविताएं ‘इंडिएन लिटरेचर’, ‘डेवोनेयर’, ‘काव्यभारती’, ‘द लिटिल मैगेजिन’, ‘जेंटलमैन’, ‘स्टेज हिल लिटरेरी जर्नल’, ‘आउटलुक’ और ‘सदानीरा’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ ‘इयरबुक ऑफ इंडियन पोएट्री इन इंगलिश 2020-2021, ‘शेप ऑफ द पोएम: अ रेड रीवर एंथोलॉजी ऑफ कंटेपरारी इरेटिक पोएट्री’, ‘विटनेसः अ रेड रीवर एंथोलॉजी ऑफ डिसेंट’ जैसे कई महत्त्वपूर्ण संकलनों में भी शामिल हैं.

दुर्गा प्रसाद पंडा समकालीन ओड़िया कविता के सशक्त हस्ताक्षरों में से एक हैं. पंडा की कविताएं न केवल यथार्थवादी संसार से लोहा लेती हैं, बल्कि कविता के बने-बनाए खांचों से भी टकराती हैं. ओड़िया कविता की परंपरा से सत्त्व-तत्त्व ग्रहण करती उनकी कविताएं असाधारण तरीके से अपनी बात कह जाती हैं.

ओड़िया साहित्य का वितान बहुत बड़ा है. विशाल सागरतट, सुरम्य प्रकृति और उत्कल की माटी में लोक-जीवन की खुशबू समेटे ओड़िया कृतियों को हिंदी जगत ने भी हमेशा हाथों-हाथ लिया और सराहा है. गौरलतब है, कि सुपरिचित व सुधी अनुवादक ‘सुजाता शिवेन’ के माध्यम से हिंदी पाठक जगत ओड़िया साहित्य से लगातार परिचित होता रहा है, और यह क्रम सतत् जारी है. सुजाता की पच्चीस से भी अधिक अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. सुजाता ने दुर्गा प्रसाद पंडा के कविता-संग्रह ‘कविता बनते-बनते रह गई जो पंक्तियां’ का भी अनुवाद किया है.

सुजाता शिवेन द्वारा संकलित, संपादित और अनूदित संग्रह ‘कविता बनते-बनते रह गई जो पंक्तियां’ की कविताएं परिपक्व और अनुभव से भरी हुई हैं. प्रस्तुत हैं काव्य-संग्रह से तीन चुनिंदा कविताएं- ‘इतिहास’, ‘भूख’ और ‘नारी देह’…

1)
इतिहास
इतिहास लिखते समय
जरूरत पड़ती है खून के अक्षरों की

विलुप्त समय का पेट फाड़कर
उखाड़ना होता है कितना शिलालेख,
ताम्रपत्र और गुप्त दस्तावेजों का रहस्य .

दुर्ग के जीर्णकाय सीढ़ी की काया पर
पढ़ना होता है पलायित सम्राट के पांव के निशान

गुप्त सुरंग के द्वार पर से
झूलते हुए समय की अंधी गली के अंदर
जहां जाने कितनी शताब्दी तक पड़ा रहता है
परत दर परत महत्त्वाकांक्षा का जीवाश्म.

और सुनाई पड़ता है
कंकालों का समवेत कलरव
कालकोठरी के विस्मृत अंधकारपूर्ण अंतर से.

2)
भूख
किस पैमाने में नापा जाता है
भूख की तीव्रता को

धंसी हुई धुंधली आंखों के अंधेरे में
गिने जा सकने वाले अस्थि पंजर में
पेट के लिए अभी-अभी बेचे गये
शिशु की प्रश्नभरी आंखों में
ढंके न जा सके तन की लज्जा में.

कैसे समझाया जा सकता है
भूख की भाषा को,
कौन रखता है हिसाब
हड्डी के अंदर के परतदार दुःख का?

इन सारे प्रश्नों को दरकिनार कर
ईश्वर की तरह हवा भी
रास्ता बदलकर चली जाती कहीं और
एक सुरक्षित दूरी तक

अंगीकार विहिन आसमां का
चेहरा दिखता जर्द सा
ठूंठा पेड़ खड़ा है दार्शनिक अंदाज में
अपने को झाड़-झूड़कर निःशेष करने के बाद.

अनिश्चितता को अपनाकर
करवट बदलती है
भूख ज्वालामय तन की
अंधेरे कोने में.

और कभी-कभी उस भूख की पुकार
सुनाई पड़ती है स्लोगन की तरह
विधानसभा की सड़क के सामने .

3)
नारी देह
कभी-कभी
रात के गाढ़े अंधेरे में
मैं अपना हाथ बढ़ाकर छूने की कोशिश करता हूं
मेरी बहुत अपनी देह को.

कितनी दूरी पर
और कहां रहती है मेरी देह ?

पूरे जीवन मैं ऐसे ही
ढूढ़ता रहता हूं मेरे पास से अपहृत
अपनी उस देह को
जिसे शायद मैं ओढ़ता
एक गुनगुने चद्दर की तरह
अपने अकेलेपन की लंबी रात में.

इस देह को लेकर
तमाम अपवाद के बावजूद
मन की अतलतल गहराई में
मैं क्या जानता हूं बहुत अच्छी तरह से
यह देह ही मेरा आखिरी पाथेय है
घोर दुर्दिन की बेला में
इतनी तकलीफ भरी देह को लेकर
कहां छुपा के रखूं मैं
किस सात ताल पंक के भीतर ?

कहीं भी त्राण नहीं है इस देह की
पानी के भंवर से बाहर निकल आने पर
निगल जाने का इंतजार करती बैठी रहती आग,
आग से झुलसने से बच जाने पर
बहा ले जाने के लिए तैयार बैठी रहती
किनारों को निगलती नदी की धारा,
कुंठा के पंजों से बाहर निकल आने पर
इस देह को झपट लेता है बाजार
बाजार के हाथ से निकल जाने पर
बीच रास्ते से खींच लेता है मठ का
मांसलोभी महंत .

आधी मिट्टी, आधे आकाश से बनी
मेरी इस तुच्छ देह को लेकर
दोपहर के इस सुनसान अंधेरे में
मैं जाऊं तो कहां जाऊं?

पुस्तक : कविता बनते-बनते रह गईं जो पंक्तियां
लेखक : दुर्गा प्रसाद पंडा
अनुवाद : सुजाता शिवेन
प्रकाशक : सर्व भाषा ट्रस्ट
मूल्य : 300 रुपए

Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature, Poem

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