‘फिलिस्तीन की चिंता है तो पहले अपने घर में…’, इजरायल-हमास जंग पर तस्लीमा नसरीन की दो टूक

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कोलकाता. जिंदगी भर बगावती तेवर अपनाने वाली बांग्लादेशी राइटर तस्लीमा नसरीन का मानना है कि उनके जिन देशवासियों को फलस्तीनियों के खिलाफ अत्याचार की चिंता है उन्हें अपने ही देश में अल्पसंख्यकों की दुर्दशा की उतनी ही फिक्र करनी चाहिए. तस्लीमा नसरीन ने कहा कि जब और जहां कहीं भी उन्हें नाइंसाफी नजर आएगी, उसके खिलाफ ‘संघर्ष करते रहना’ ही उनका कर्तव्य है.

विद्रोह की इस चिंगारी की वजह से उन्होंने परंपराओं को चुनौती दी और अपने समाज के पाखंड और ‘स्त्रीद्वेष’ को सामने लाने के लिए लेखनी उठाई. तस्लीमा ने ‘पीटीआई-भाषा’ को रविवार को दिये इंटरव्यू में कहा, ‘‘मैं सुनती हूं कि मेरे साथी बांग्लादेशी नागरिक फलस्तीनियों पर अत्याचार से कुपित हैं और उनमें से कुछ तो उनकी मदद के लिए फलस्तीन भी जाना चाहते हैं. इजरायलियों और फिलिस्तीनियों समेत दुनिया में कहीं भी किसी पर अत्याचार की मैं व्यक्तिगत रूप से निंदा करती हूं.’’

बांग्लादेश में किया जाता हे अल्पसंख्यकों पर हमला: नसरीन
नसरीन ने कहा, “लेकिन मैं कहना चाहूंगी कि यदि मेरे देशवासी फिलिस्तीन में अत्याचार और हमलों के फलस्वरूप आयी शरणार्थियों की बाढ़ से इतने चिंतिंत हैं, तो, जब आज भी बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हमला किया जाता है और उनमें से कई अपनी जमीन छोड़कर अन्यत्र शरणार्थी बनने के लिए बाध्य किए जाते हैं, तब भी उनकी अन्तश्चेतना आहत होनी चाहिए.’’

नसरीन ने खोला अपने देश का कच्चा चिट्ठा
पिछले महीने अल्पसंख्यक समुदाय के करीब 80 साल के एक कवि के साथ मारपीट की गई थी, जो बांग्लादेश में ऐसे हमलों की लंबी श्रृंखला में एक कड़ी थी. अगस्त, 2023 में ‘श्रृष्टि ओ चेतना’ नामक एक संगठन की मानवाधिकार रिपोर्ट के अनुसार ‘मंदिरों और अन्य समुदायों की संपत्तियों पर हमले’, या सामान्य अल्पसंख्यक विरोधी अपशब्द, ‘देश से निकाल देने या उत्पीड़न’ की धमकी ऐसी घटनाएं थीं जो सामने आई थीं.

प्रख्यात कवयित्री ने कहा, “मेरी मातृभूमि में शानदार आर्थिक विकास नजर आने के बावजूद बांग्लादेश में कट्टरपंथ सिर उठाता दिख रहा है. लैंगिक असंतुलन लगातार एक कारक बना हुआ है. सार्वजनिक और राजनीतिक परिदृश्य में सांप्रदायिक संगठन के लोगों को जगह दी जा रही है.” तस्लीमा ‘सिमोन दा बीवयोर’ पुरस्कार और ‘सैखरोव पुरस्कार’ से सम्मानित की जा चुकी हैं. उनकी साहित्यिक कृतियां पर 1990 के दशक में दुनिया की नजर गई थी और उन्हें समीक्षकों ने सराहा था. लेकिन पाखंड और कट्टरपंथ को बेनकाब करती उनकी साहित्यिक कृतियों से उनके देश में रूढ़िवादी धर्मगुरु वर्ग नाराज हो गया और उनमें से कुछ ने उनके खिलाफ फतवा जारी कर दिए. ऐसे में उन्हें यूरोप और अमेरिका जाना पड़ा और बाद में वह भारत आ गईं और अब दिल्ली में रहती हैं.

तस्लीमा नसरीन ने आरोप लगाया, “एक तरफ, बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है और बढ़िया बुनियादी ढांचा सामने आ रहा है, जबकि दूसरी तरफ बच्चों को कट्टरपंथ का पाठ पढ़ाने वाले कौमी मदरसों को बढ़ावा दिया जा रहा है.”

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