REVIEW: अच्छी सी उम्मीद जगाती है वेब सीरीज ‘निर्मल पाठक की घर वापसी’

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‘Nirmal Pathak Ki ghar wapsi’ Review: बिहार राज्य की छवि गैंगस्टर, बंदूकें, अपहरण, बाहुबली और गुंडागर्दी से आगे फिल्मों में या वेब सीरीज में दिखाने से निर्माता-निर्देशकों को क्या गुरेज़ हो सकता है ये तो वो ही जाने फिर भी कभी-कभी, बीच-बीच में एक दो हल्की फुल्की फिल्में या वेब सीरीज ऐसी दिखाई दे जाती है जो हमारे देश के देहात, देश के अंचल, गांवों की असली कहानियां प्रस्तुत करती हैं तो दर्शकों का मन और आंखें, दोनों भर आती हैं. कुछ दिन पहले अमेजन प्राइम वीडियो पर पंचायत का दूसरा सीजन रिलीज़ हुआ जिसने दर्शकों को रुला ही दिया.

इसी कड़ी में अब सोनी लिव पर एक और प्यारी सी सीरीज ‘निर्मल पाठक की घर वापसी’ का पहला सीजन रिलीज़ किया गया जिसको देखते देखते बिहार के किसी गांव की गलियों में घूमने का एहसास हो आया. टेलीविज़न सीरियल लिखने वाले राहुल पांडे की लिखी ये पहली वेब सीरीज है, और उन्होंने इसका सह-निर्देशन भी किया है. देखना सुखद अनुभव है. सोनी लिव के लिए गुल्लक के बाद इस तरह की एक वेब सीरीज में निवेश करना, एक तरह का विद्रोही कदम है.

निर्मल पाठक (वैभव तत्ववादी) के पिता बिहार रहने वाले थे. तबीयत से समाजवादी और कायदे से लेखक. अपने इर्द गिर्द जाति को लेकर होने वाले भेदभावों से परेशान होकर कलाकार ह्रदय ने समाज के कानूनों को तोड़ने का दुस्साहस किया. मैला साफ़ करने और ढोने वाले एक व्यक्ति के घर भोजन करना, उसके साथ रहना और अपने पिता के खिलाफ एफआईआर करवाने जैसे कामों की वजह से रूढ़िवादी छोटा भाई उन पर बन्दूक तान देता है. नाराज़ होकर वो घर और अपनी पत्नी को छोड़कर अपने 2 साल के बेटे को लेकर शहर आ जाते हैं.

लिखने का काम करते हैं, बड़े लेखक हो जाते हैं और शहर की एक लेखिका के साथ घर बसा लेते हैं. बरसों बाद निर्मल के चचेरे भाई की शादी का न्यौता आता है और निर्मल अपने गांव चल पड़ता है. गांव जा कर उसके लिए सब कुछ नया और अजीब होता है. उसका चचेरा भाई स्थानीय नेता है, दादाजी अब बहुत बूढ़े हो गए हैं. उसकी जन्मदात्री मां, ठेठ बिहार की सीधी औरत, जो दिन भर घर का काम करती रहती है और उसके सनकी चाचाजी जो उसके आने से नाखुश हैं.

गांव की ज़िंदगी से रूबरू होते होते निर्मल का सामना होता है गरीबी से, छोटे कसबे की मानसिकता से, वही पुरानी जाति-प्रथा से. जहां परिवार उसको गले लगाता है वहीं जब वो अपनी मां को तिल तिल कर मरते और मानसिक संत्रास से गुज़रते देखता है तो वो अपने पिता की ही तरह विद्रोह करना चाहता है. उसका परिवार उसके खिलाफ हो जाता है. उसके चचेरे भाई की शादी क्षेत्रीय विधायक की बेटी से हो रही होती है और उस लड़की का मन शादी करने का नहीं होता मगर पिता की आज्ञा के खिलाफ कौन बोले. दिल्ली से आया निर्मल, अपनी ही दुनिया का ये स्वरुप देख कर वापस लौट जाना चाहता है लेकिन उसकी मां उसे रोकती है. सीजन 2 में शायद निर्मल, अपने गांव और समाज की भलाई के लिए कुछ करेगा ऐसा लगता है.

बिहार में फैली जाति प्रथा का अचूक वर्णन किया गया है. उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच की अपनी कहानी है. उत्तर प्रदेश के लड़के जब बिहार आते हैं तो उन्हें स्टेशन से अगवा कर लिया जाता है और फिरौती मांगी जाती है. बिहार के लड़के जब उत्तर प्रदेश जाते हैं तो भी ऐसा ही होता है. पहले ही दृश्य में समझ आ जाता है कि निर्मल के लिए ये यात्रा उसकी ऑंखें खोलने वाली होगी और इसलिए यात्रा पूरी होने से पहले उसका जूता, उसका बैग, उसका पर्स सब कुछ गायब. मार्मिक दृश्यों से भरी इस वेब सीरीज की तारीफ करनी होगी क्योंकि कुछ जगह पर वास्तिविकता इतनी नाटकीय है कि उसके होने भर से आप हंस देते हैं. इंजीनियर नहीं बन पाए इसलिए नाम इंजीनियर, विधायक नहीं बन पाए इसलिए विधायक, पुलिस में न जा पाए इसलिए दरोगा जैसे नाम होते हैं लोगों के. छोटी जात का नेताजी का चमचा, चीनी के कप में चाय पीता है, उसका खाना अलग दिया जाता है.

सफाई कर्मी के बच्चे शादी के बाहर कूड़े में खाना खोज रहे होते हैं. स्कूल में बच्चे पढ़ने नहीं मिड-डे मील के लालच में जाते हैं. बड़े भाई के कहने पर छोटा भाई बन्दूक की गोलियां फेंक देता है. नेता जी कभी किसी खरीद के पैसे नहीं देते. विधायक जी को शहर से आया कम्युनिस्ट विचारधारा वाला लड़का एक अजूबा लगता है. विनीत कुमार ने इस जगह पर एक ऐसा डायलॉग बोला है जो कि सच ही माना जा सकता है – चालीस की उम्र से पहले अगर आप कम्युनिस्ट नहीं हैं तो आपके सीने में दिल नहीं है और चालीस की उम्र के बाद भी आप कम्युनिस्ट हैं तो आप मूर्ख हैं. कड़वा सच. लेखक राहुल पांडे, बिहार का क़स्बा स्क्रीन पर उतार कर रख दिए हैं.

वैभव तत्ववादी का अभिनय बहुत अच्छा है. बड़ा रोल उनके हिस्से में पहली बार आया है और उन्होंने न्याय से बढ़ कर काम किया है. अपने चचेरे भाई और उसके दोस्तों को खाना खाते समय स्वयं पानी लेने के लिए बोलना उन्हें अपनी चचेरी बहन की नज़र में हीरो बना देता है जो हमेशा सबके लिए खाना और पानी ला कर देती है. असल जिंदगी यही है. लड़की है तो घर का सब काम करेगी ही जैसी सच्चाई सामने है. वैभव का अपनी जन्मदात्री मां से मिलने का पहला दृश्य भी अद्भुत है क्योंकि कुछ पल पहले ही उसकी मां उसके पैर धोती है और अपने आंचल से पोंछती है. बिहार में ये दृश्य आप आज भी देखेंगे.

छोटे चचेरे भाई आतिश का किरदार आकाश मखीजा ने निभाया है. काफी जीवंत अभिनय है मगर इनकी राह अभी लम्बी है. मां संतोषी पाठक के रोल में अलका अमीन, चाचा के रोल में पंकज झा और विधायक के रोल में विनीत कुमार तो अपने अनुभव से ही किसी भी रोल को सहजता से प्रभावी बना देते हैं. लालबिया के रोल में कुमार सौरभ ने नेता जी के छोटी जाति के चमचे का रोल किया है. उसके लिए अलग कप में चाय मिलना या घर के लोगों के साथ खाना खाने को न मिलना बात मायने ही नहीं रखती. दमदार काम है.

निर्देशक द्वय राहुल पांडे और सतीश नायर ने बहुत अच्छी सीरीज निर्देशित की है. हर दृश्य नपातुला है. किसी भावना को बोझिल होने तक नहीं दिखाया गया है. बीच बीच में हलके फुल्के दृश्य भी रखे गए हैं हालांकि उसे कहानी या कहानी की गति में फर्क नहीं पड़ता. आखिरी के 2 एपिसोड थोड़े रफ्तार वाले लगे हैं. एक एपिसोड और बढ़ाया जाता तो कई सारे सूत्र सही जगह पर आ कर खुलते. ऐसे में दर्शक शायद और भावनात्मक जुड़ाव महसूस करते. अच्छी वेब सीरीज है. देखना बनता है. बिहार को बाहुबलियों की जिंदगी से परे देखना हो तो इसे देख सकते हैं. दूरदर्शन के दिनों की याद भी ताज़ा हो जाएगी और शायद कुछ पूर्वाग्रह भी दूर होंगे. गांव दरअसल लैपटॉप, मोबाइल, एसयूवी जैसी भौतिक सुविधाओं से तो परिचित हो गए हैं लेकिन संस्कार के नाम पर होने वाले अत्याचारों से अभी तक मुक्ति नहीं मिली है.

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