‘एक बदनाम… आश्रम 3’ REVIEW: दो सीजन सफल रहे, तीसरा एकदम ठंडा निकला

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‘Ek Badnaam… Aashram 3’ Review: इस वेब सीरीज में बॉबी देओल के किरदार से आप जितनी घृणा कर सकते हैं उतनी कम हैं, क्योंकि उनकी हरकतें ही कुछ ऐसी हैं, लेकिन इसके बावजूद बॉबी इतनी सफाई से अपने किरदार निभाते हैं कि आप उन्हें मन ही मन माफ कर देते हैं और सारे गड़बड़ झाले के लिए उनके दोस्त चंदन रॉय सान्याल को ही दोषी मानते हैं. प्रकाश झा की ये कृति अपने तीसरे सीजन में एमएक्स प्लेयर पर रिलीज हुई है, लेकिन इस बार नाम आश्रम से बदलकर “एक बदनाम आश्रम 3” कर दिया गया है. किसका दबाव था ये तो पता नहीं, लेकिन पहले दो बेहतरीन सीजन देखने के बाद ये वाला सीजन इतना दुखी कर देता है कि प्रकाश झा पर गुस्सा आ जाता है.

इस पर तुर्रा ये है कि इस सीजन के आखिरी एपिसोड में आने वाले सीजन यानी सीजन 4 की भूमिका भी बना दी गयी है और उसकी एक छोटी सी झलक भी दिखा दी गयी है. तीसरा सीजन ठंडा है, उम्मीदों पर बिलकुल खरा नहीं उतरता और कहानी को भी कहीं आगे नहीं ले जाता. वैसे तो वेब सीरीज में प्रत्येक सीजन देखना ज़रूरी होता है लेकिन आश्रम का ये तीसरा सीजन नहीं भी देखेंगे तो कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा, दूसरे सीजन के बाद सीधे चौथे सीजन पर जाया जा सकता है.

आश्रम की कहानी में ऐसे कई अंश हैं जो हमारे देश में फैले बाबाओं के प्रभाव, उनके मकड़जाल और उनकी काली करतूतों के साथ राजनीति में की जा रही गंदगी का कच्चा चिटठा बयान करते हैं. करंट अफेयर्स में यदि रूचि रखते हैं तो ये समझना ज़्यादा मुश्किल नहीं है कि हो क्या रहा है. सीजन 1 और 2 में बाबा निराला (बॉबी देओल) के साम्राज्य को दर्शकों के सामने परत दर परत उघाड़ा गया था. कैसे दलितों का मसीहा बन कर बाबा निराला अपने विश्वस्त सिपाहसालार भोपे (चंदन रॉय सान्याल) और हज़ारों-लाखों भक्तों की मदद से देश की भोली भाली जनता को बेवकूफ बनता है, उनके साथ गलत हरकतें करता है, और भ्रष्टाचार का पोखर बनाते जाता है.

गरीब, खाने को तरसती और ज़िन्दगी के मायने ढूंढती जनता को एक आसरा मिलता है बाबा निराला के रूप में. आश्रम ने एक बात तो अच्छी की है कि बाबा को फालतू भाषण झाड़ते और प्रवचन देते नहीं दिखाया है. बाबा का आश्रम ड्रग्स बनाने-बेचने का अड्डा है, बाबा वहां लड़कियों का यौन शोषण करते हैं, परित्यक्ता और पतित्यक्ता स्त्रियों के शोषण से जब उनका मन भर जाता है तो अपने ही किसी भक्त से उनकी शादी करा देते हैं. अपने चेलों को नियंत्रण में रखने के लिए वो शुद्धिकरण के नाम पर उनका बंध्याकरण कर देते हैं. बड़े से बड़ा राजनीतिज्ञ उनके आगे पीछे घूमता है क्योंकि उनके लाखों भक्त उनके कहने पर किसी भी पार्टी को वोट दे देते हैं. उनका साम्राज्य इतना बड़ा है कि पुलिस, प्रशासन, नेता, अभिनेता सब के सब उनके चमचे या भक्त हैं. बाबा के खिलाफ कोई आवाज़ नहीं उठा सकता और जो उठाता है उसके ख़त्म कर दिया जाता है, कभी गोली मार कर और कभी किसी केस में फंसा कर.

सीजन 1 और 2 में एक लड़की पम्मी (अदिति पोहनकर) जो कि एक छोटी जाति की पहलवान है, बाबा उसको अपने तारणहार लगते हैं. पम्मी और उसका भाई, माता-पिता से झगड़ कर भी बाबा के आश्रम में सेवादार हो जाते हैं. सब ठीक चलता है जब तक बाबा, पम्मी को अपनी वासना का शिकार नहीं बना लेते और पम्मी उन्हें बर्बाद करने का निर्णय नहीं ले लेती. पम्मी आश्रम से भाग जाती है. तीसरा सीजन सिर्फ पम्मी के छुपने और बाबा के गुंडों और पुलिस द्वारा उन्हें ढूंढने पर केंद्रित है. बीच बीच में इस पकड़मपाटी के खेल से मुक्ति दिलाने के लिए ईशा गुप्ता के साथ एक उत्तेजक गीत भी रखा गया है, एक बड़े ड्रग कार्टेल की स्थापना भी हो रही है, बाबा के चेले रॉकस्टार टिंका सिंह के मंत्री बनने की कहानी के साथ साथ, बाबा की ज़िन्दगी के शुरुआती दिनों के किस्से भी हैं जिसमें बाबा कैसे एक आम मैकेनिक से इतने बड़े महान बाबा बन गए, और ये सब उनकी धर्म पत्नी के मुंह से सुनाया गया है.

सीजन 3 में कुछ ख़ास मसाला है नहीं लेकिन फिर भी 10 एपिसोड तक कहानी खींच खींच के परोसी गयी है. कुछ कुछ दृश्य अनावश्यक लगते हैं, कुछ बोरिंग लगते हैं और कुछ निहायत ही उबाऊ. जहां कहानी को गति पकड़नी चाहिए वहां कहानी धीमी पड़ गयी है और जहां धीमा होना चाहिए, वहां बीच की कड़ी के तौर पर काम आने वाले दृश्यों को रखा ही नहीं गया है.

बॉबी देओल ने हालांकि इस सीजन में भी लाजवाब अभिनय किया है. उनके जीवन का सबसे अच्छा रोल है और उन्होंने किरदार में प्राण फूंक दिए हैं. बॉबी बड़े से अंगरखे और पगड़ी वाली वेशभूषा में बहुत ही जंचे हैं. वैसे तो बॉबी की बतौर अभिनेता डायलॉग डिलीवरी बहुत ही कमज़ोर है लेकिन उसी का फायदा इस किरदार में उन्हें मिला है. धीमा धीमा, आराम से बोलना, कभी गुस्सा नहीं करना, हर बात को भक्ति से जोड़ देना, कभी भी उत्साह में नहीं आना ये उनके किरदार की विशेषताएं हैं और ऐसे में उनकी डायलॉग डिलीवरी बाबा को सूट करती है. चन्दन रॉय सान्याल के करियर का भी ये सबसे बड़ा रोल यही है. बाबा निराला जब मैकेनिक मोंटी होता है तब उसकी मुलाक़ात भोपे से होती है जो खुद एक गुंडा है.

दोनों की दोस्ती हो जाती है. मोंटी के व्यक्तित्व, कद काठी और चिकनी चुपड़ी लच्छेदार बातें परोसने की कला को भोपे निखारता है और उसे आगे कर के पूरे आश्रम का और बाबा के काले धंधों का सञ्चालन खुद करता है. चन्दन अपने छोटे कद के बावजूद, कद से बड़े नज़र आये हैं. इस सीजन में भी उनके खूंखार होने में कोई कमी नहीं है. अदिति पोहनकर को पम्मी के रोल में पहले सफलता मिली, दर्शकों ने पसंद किया लेकिन इस सीजन में पम्मी चूक गयी है. एक जैसा एक्सप्रेशन, एक जैसी डायलॉग डिलीवरी और एक जैसा प्रस्तुतीकरण. दर्शकों को बोर कर गया. पहले सीजन में वो एक भोली लड़की थी जिसे सिर्फ पहलवानी करनी थी. दूसरे में भी वो बाबा के सेवादार बनती है लेकिन पहलवानी में अच्छा प्रदर्शन करती है लेकिन इस सीजन में वो सिर्फ भाग रही है बाबा से. राजीव सिद्धार्थ के साथ उनकी केमिस्ट्री बनती है और दर्शक उम्मीद करते हैं कि कुछ और बात बनेगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता.

मुख्यमत्री हुकुम सिंह की भूमिका सचिन श्रॉफ ने निभाई है. दूसरे सीजन में उनका रोल आकार लेने लगा था जो इस सीजन में और निखरता लेकिन सचिन का किरदार भी असंतुलित रूप से नज़र आता है. उनकी मित्र और ब्रांडिंग कंसलटेंट सुनैना के रूप में ईशा गुप्ता की एंट्री के बगैर भी ये सीजन हो सकता था लेकिन लगता है प्रकाश झा को पता था कि ये सीजन में कोई हुक नहीं है दर्शकों को बांधने वाला तो एक निहायत ही अश्लील सा देह-प्रलोभन गीत डाला है. दर्शन कुमार का किरदार पहले पहले दो सीजन में महत्वपूर्ण था लेकिन इस सीजन में अजीब रहा. इसी तरह का व्यवहार सभी पुराने किरदारों के साथ हुआ जैसे त्रिधा चौधरी और अध्ययन सुमन.

इस बार लेखक मण्डली में अविनाश कुमार, शो की क्रिएटिव डायरेक्टर माधवी भट्ट के साथ अनुभवी संजय मासूम जुड़े रहे लेकिन शुरूआती सीजन के लेखक द्वय हबीब फैसल और कुलदीप रुहिल का न होना इस सीजन को कमज़ोर कर गया ऐसा लगता है. अब्बास अली मुग़ल को एक्शन की ज़िम्मेदारी दी गयी और इस बार उन्होंने कुछ खास काम किया ऐसा लगता नहीं. कई जगह एक्शन की ज़रूरत नहीं थी और कहीं कहीं चेस सीक्वेंसेस ज़रूरी थी ताकि कहानी में गति आये, प्रकाश जा के विश्वस्त एडिटर संतोष मंडल से उम्मीद थी कि कहानी की रफ़्तार और रोमांच दोनों बना रहेगा, लेकिन इस बार संतोष के पास कुछ खेलने लायक मटेरियल ही नहीं निकला. एक भी एपिसोड ऐसा नहीं था जिसमें कहानी का निर्दिष्ट समझ आता हो. अच्छा एडिटर, कहानी को कस के रखता है, संतोष के पास कुछ कसने के लिए नहीं था. आश्रम का ये वाला सीजन बड़ा ही विचित्र रहा. न कहानी आगे बढ़ी, न ही नए किरदारों के आने से कुछ खास फर्क पड़ा, न ही पुराने किरदारों ने ऐसा कुछ किया जिसको देखने का मन कर.

पम्मी को पकड़ने की बाबा की ज़िद अगर ये भी नाम रख देते तो इस सीजन पर ठीक बैठता. बाबा निराला के मैकेनिक से बाबा बनने की कहानी एक एपिसोड में कुछ ही मिनिटों में ख़त्म कर के, दर्शकों को बाबा के चमत्कार से दूर रखा गया या शायद एक सीजन और निकल आएगा, ये सोच कर बाबा की बैक स्टोरी को बहुत कम समय में निपटा दिया गया. एक बदनाम आश्रम का सीजन 3 एकदम ठंडा है, बोर है. किसी दिन जब बिंज वॉचिंग का मन हो तो सीजन 1 और 2 देख लिए जाएं. जब अगले साल सीजन 4 आएगा तो सीधे उस पर पहुंच जाएं, कुछ मिस नहीं होगा.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

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