‘Ante Sundaraniki’ Film Review: दर्शकों की पसंद का हिसाब समझना ज़रा मुश्किल ही होता है. एक तरफ सम्राट पृथ्वीराज चौहान जैसी इतिहास पर आधारित फिल्म नहीं चलती, तो वहीं एक्शन से भरपूर धाकड़ भी बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ देती है, लेकिन आरआरआर जैसी फंतासी फिल्म को देखने करोड़ों दर्शक पहुंच जाते हैं और भूल भुलैया जैसी कॉमेडी फिल्म भी साल की सबसे बड़ी फिल्मों में शामिल हो जाती है.
ओटीटी पर देश-विदेश का मसाला भी मिल जाता है और ऐसे में एक ऐसी फिल्म भी देखने को मिल जाती है जो बड़ी ही सॉफ्ट है, साफ सुथरी है और रोमांस से भरपूर है- अंते सुंदरानिकी, जिसका अर्थ है- सुंदर का तो ऐसा है कि. नाम से ज़ाहिर है कि सुंदर नाम के किरदार के इर्द गिर्द घूमती फिल्म है और अच्छी बात ये है कि फिल्म सचमुच बहुत सुंदर है. युवा दंपत्ति, प्रेमी युगल इस फिल्म को देखेंगे तो उन्हें काफी ऐसी बातें नज़र आएंगी जो उनकी ज़िंदगी के किसी पहलू से मिलती जुलती लगती है.
सुंदर (नानी) एक कट्टर ब्राह्मण परिवार का एकलौता वारिस है. उसके पिता और दादी हमेशा ही शुभ अशुभ के चक्करों में पड़ कर उसे खुलकर जीने भी नहीं देते. सुंदर के मन में बचपन से अमेरिका जाने की धुन सवार रहती है. अपने बॉस को उल्लू बना कर ये अवसर हासिल करने के लिए वो अपनी सहकर्मी सौम्या को भी अपनी स्कीम में शामिल कर लेता है और अमेरिका पहुंच जाता है. सुंदर की अमेरिका जाने की असली वजह उसकी बचपन की दोस्त लीला (नज़रिया) है जो अमेरिका के एथेना आइलैंड पर शादी करना चाहती है. लीला का परिवार कट्टर क्रिस्चियन है.
सुंदर और लीला एक दूसरे से शादी करने के लिए एक प्लान बनाते हैं. लीला अपने घर पर फ़ोन कर के कहती है कि वो गर्भवती है और इसलिए उसकी शादी सुंदर से कर दी जाए. सुंदर अपने घर पर फ़ोन कर के कहता है कि डॉक्टर की जांच में पता चला है कि वो पिता नहीं बन सकता और इसके बावजूद एक लड़की उस से शादी को तैयार है तो उन दोनों की शादी करा दी जाए. दोनों के भारत लौटने पर शुरू होता है नया ड्रामा, झूठ बोलकर सच छुपाने के चक्कर में वो कई झूठ बोल देते हैं, और मामला बिगड़ जाता है. फिल्म का अंत अत्यंत मार्मिक है, गला भर आता है और एहसास होता है कि प्रेम की गली में झूठ का मकान नहीं चल सकता.
नानी की प्रतिभा किसी परिचय की मोहताज नहीं है और इस फिल्म में वो एक ऐसे शख्स की भूमिका में है जो अपने परिवार के रीति रिवाजों से दुखी है लेकिन कुछ कर नहीं सकता. अपने पिता, अपनी मां और अपनी दादी की इच्छाओं के तले उसकी अपनी इच्छाओं का गला घोंटना पड़ता है. जब तक वो लीला से अपने प्रेम का इज़हार नहीं कर देता तब तक उसके मन में असमंजस ही चलता रहता है.
नानी ने इस भूमिका में कमाल का अभिनय किया है. किरदार को कलाकार पर भारी पड़ते देखना हो तो इस फिल्म में देखा जा सकता है. उनके अपोजिट हैं नज़रिया. ये उनकी पहली तेलुगु फिल्म हैं. अपने बॉयफ्रेंड से ब्रेकअप के बाद वो जैसे जैसे नानी के करीब आती जाती हैं उनके चेहरे की रंगत में फर्क नज़र आने लगता है. अपने माता पिता से झूठ बोलने की ग्लानि और अपनी बहन को शादी की चक्की में पिसते देखने का दर्द, दोनों ही उसकी मानसिक स्थिति का परिचायक हैं. सुंदर के पिता श्री शास्त्री (वी के नरेश) और लीला के पिता श्री थॉमस (अळगम पेरुमल) दोनों ही अपनी अपनी रूढ़ियों से परेशान हैं लेकिन चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते. दोनों का अभिनय अव्वल दर्ज़े का है.
इस फिल्म में कुछ ख़ास बातें हैं जो आज की युवा पीढ़ी देख कर सीख सकती है. रूढ़िवादिता को तोड़ने के लिए पहले उस रूढ़ि को समझना ज़रूरी है. किसी ज़माने में विदेश यात्रा करना धर्म के खिलाफ माना जाता था. जाने से पहले और आने के बाद तमाम तरह के प्रायश्चित करने पड़ते थे. इसका कारण आबोहवा और खान पान के बदलने से होने वाली बीमारियों से मुक्ति होता था. मूल विचार कहीं छूट गया और सिर्फ एक रूढ़ि रह गयी. किसी भी संकट को दूर करने के लिए पूजा करना ज़रूरी है. पुराने समय में संकट का अर्थ शारीरिक व्याधि यानि बीमारी होता था और पूजा, यज्ञ के बहाने घर में कीटपतंगों का नाश करना होता था. अब सिर्फ पूजा मानी जाती है और असली उपयोग कहीं रूढ़ि में बदल गया है.
फिल्म में एक और बात पर ज़ोर दिया गया है वो है सच बोलना. वैसे तो ये कहावत काफी पुरानी है कि सच एक बार बोलना पड़ता है और झूठ कई बार लेकिन इस फिल्म को देखते हुए लगता है कि झूठ यदि मासूमियत से भी बोलै जाए तब भी झूठ तो होता ही है. एक कहावत और है कि हमेशा अच्छी बात केहनी चाहिए, बुरी बातें बोलने से भी बचना चाहिए क्योंकि जुबां पर सरस्वती का वास होता है और कहीं वो बात सच हो गयी तो. फिल्म में इसे बड़े ही मार्मिक तरीके से दिखाया गया है. ये रूढ़ि वाली बात है कि सरस्वती का वास ज़ुबान पर होना लेकिन इसका उद्देश्य व्यक्ति को गलत बातें बोलने से रोकना था. फिल्म में ऐसे कई सन्देश हैं जो बीच बीच में आते रहते हैं और फिल्म के आवश्यक हिस्से की तरह नज़र आते हैं इसलिए मुफ्त का लेक्चर नहीं लगते.
स्टोरी टेलिंग में भी इस फिल्म में लेखक निर्देशक विवेक अत्रेय ने काफी प्रयोग किये हैं. नानी और नज़रिया के बचपन के सीन्स एक सामाजिक कुरीति को इंगित करते हैं लेकिन लेक्चर नहीं बनते. एक नकली असिस्टेंट डायरेक्टर सुंदर की वजह से सुंदर को सुपरस्टार चिरंजीवी के बचपन का रोल करने का मौका मिलने वाले दृश्य हालांकि बड़े ही हलके फुल्के तरीके से फिल्माए हैं मगर एक बड़ी समस्या की और इंगित करते हैं. लीला और सुंदर जितनी आसानी से प्रेगनेंसी और इम्पोटेंसी की बातें कह देते हैं उस से ये भी ज़ाहिर होता है कि आजकल की पीढ़ी को अपने फायदे के लिए किसी भी स्तर का झूठ बोलने में कोई संकोच नहीं होता. उन्हें अपने किये का पछतावा तब होता है जब बहुत भारी नुक्सान हो चुका होता है.
विवेक ने इस हलकी फुलकी फिल्म में कुछ ऐसे पल डालें हैं जो सोचने पर मजबूर करते हैं. विवेक सागर का संगीत कर्णप्रिय है. निकेत बोम्मीरेड्डी की सिनेमेटोग्राफी एकदम ताज़ा फील देती है. एक युवा प्रेम कहानी के सही रंगों को इस्तेमाल करती सी इस कहानी की एडिटिंग रवि तेजा गिरिजाला की है जो कुछ बेहतर होने की सम्भावना के साथ फिल्म की लम्बाई को उचित ठहरती नज़र नहीं आती. फिल्म करीब 3 घंटे की है और थोड़ी छोटी की जानी चाहिए थे. फिल्म मनोरंजक है. हलकी फुलकी है. पटकथा में संदेश भी हैं जो कि कहानी में बाधा नहीं बनते. इस फिल्म को परिवार के साथ देखना चाहिए.
डिटेल्ड रेटिंग
कहानी | : | |
स्क्रिनप्ल | : | |
डायरेक्शन | : | |
संगीत | : |
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Tags: Film review
FIRST PUBLISHED : July 14, 2022, 06:30 IST