विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस: भारत में रहते हैं दुनिया के 15 फीसदी मनोरोगी!

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समाज में शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता तो नजर आती है, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य को लेकर किसी तरह की चर्चा गाहे बगाहे ही सुनने को मिलती है. मानसिक अस्वस्थता या मनोरोग को आमतौर पर हिंसा, उत्तेजना और असहज यौनवृत्ति जैसे गंभीर व्यवहार संबंधी विचलन से जुड़ी बीमारी माना जाता है. हाल के वर्षों में अवसाद यानी डिप्रेशन, सबसे आम मानसिक विकार के तौर पर सामने आया है. हालांकि मनोरोग के दायरे में अल्जाइमर, डिमेंशिया, ओसीडी, चिंता, ऑटिज़्म, डिस्लेक्सिया, नशे की लत, कमज़ोर याददाश्त, भूलने की बीमारी एवं भ्रम आदि भी आते हैं. इस तरह के लक्षण पीड़ित व्यक्ति की भावना, विचार और व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं. उदासी, एकाग्रता में कमी, दोस्तों से अलग-थलग रहना, थकान एवं अनिद्रा मनोरोग के लक्षण हैं.

किसी व्यक्ति के मनोरोगी होने के पीछे कई कारण जिम्मेदार होते हैं. सबसे महत्वपूर्ण कारण होता है आनुवंशिक. विक्षिप्तता या स्कीजोफ्रीनिया से पीड़ित होने की आशंका उन लोगों में ज्यादा होती है, जिनके परिवार का कोई सदस्य इनसे पीड़ित रहा हो. पीड़ित व्यक्तियों की संतान में यह खतरा लगभग दोगुना हो जाता है. गर्भावस्था से संबंधित पहलू, मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन, आपसी संबंधों में टकराहट, किसी निकटतम व्यक्ति की मृत्यु, सम्मान को ठेस, आर्थिक नुकसान, तलाक, परीक्षा या प्रेम में नाकामयाबी इत्यादि भी मनोरोग का कारण बनते हैं. कुछ दवाएं, रासायनिक तत्व, शराब तथा अन्य मादक पदार्थों का सेवन भी व्यक्ति को मनोरोगी बना सकते हैं. दुनिया भर में अवसाद, तनाव और चिंता आत्महत्या के प्रमुख कारण हैं. 15 से 29 आयु वर्ग के लोगों में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण आत्महत्या ही होता है. गौर करने वाली बात यह है कि चूंकि महिलाओं को मानसिक स्वास्थ्य के लिहाज से पुरुषों की तुलना में ज्यादा संवेदनशील माना जाता है, इसीलिए उनकी आत्महत्या की दर भी पुरुषों से काफी ज्यादा है.

भारत में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति चिंताजनक
भारत में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति की बात करें तो यहां की तकरीबन आठ फीसदी आबादी किसी ना किसी मनोरोग से पीड़ित है. वैश्विक परिदृश्य से तुलना करें तो आंकड़ा और भी भयावह नजर आता है, क्योंकि दुनिया में मानसिक और तंत्रिका (न्यूरो) संबंधी बीमारी से पीड़ितों की कुल संख्या में भारत की हिस्सेदारी लगभग 15 प्रतिशत है. गौर करने वाली बात है कि यह संख्या तब है जब, मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता को लेकर भारत के आम जनमानस की स्थिति बेहद दयनीय है. देश की बहुत बड़ी आबादी आज भी गांवों में रहती है, जो कि गरीबी और तंगहालीपूर्ण जीवन जीने को मजबूर है. अवसाद, तनाव और चिंता जैसी मानसिक समस्याओं की तरफ तो ना ही उनका ध्यान जाता है और ना ही वे इसे बीमारी मानते हैं. तुलनात्मक रूप से देखें तो मानसिक स्वास्थ्य को लेकर महानगरों और शहरों में जागरूकता जरूर है, लेकिन उसे भी पर्याप्त नहीं कहा जा सकता.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वह दिन दूर नहीं जब अवसाद यानी डिप्रेशन दुनिया भर में दूसरी सबसे बड़ी स्वास्थ्य समस्या होगी. चिकित्सा विशेषज्ञ दावा करते हैं कि अवसाद, हृदय रोग का मुख्य कारण है. मनोरोग बेरोजगारी, गरीबी और नशाखोरी जैसी सामाजिक समस्याओं का भी कारण बनता है.

अस्पताल और मनोचिकित्सक की भारी कमी
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2011 में भारत में मानसिक स्वास्थ्य विकार से पीड़ित प्रत्येक एक लाख मरीजों के लिए महज तीन साइकियाट्रिस्ट और मात्र सात साइकोलॉजिस्ट थे. जबकि विकसित देशों में एक लाख की आबादी पर करीब सात साइकियाट्रिस्ट हैं. भारत में करीब 15 लाख लोग, बौद्धिक अक्षमता और तकरीबन साढ़े सात लाख लोग मनो-सामाजिक विकलांगता के शिकार हैं. मानसिक अस्पतालों की संख्या भी यहां बहुत कम है. आज भी लोगों के जेहन में सबसे पहले आगरा, बरेली, रांची और निमहांस (बंगलुरू) का ही नाम आता है. यहां तक की राष्ट्रीय राजधानी, नई दिल्ली तक में महज तीन मानसिक अस्पताल हैं, जिनमें एम्स और इहबास सरकारी हैं, जबकि विमहांस प्राइवेट. भारत में सरकारी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य पर किया जाने वाला खर्च बहुत मामूली है. मानसिक रोगों से पीड़ित करीब 80 प्रतिशत लोग बेरोज़गार हैं, इस लिहाज से यह बड़ी सामाजिक समस्या भी है.

साल 1982 में शुरू हुए ‘राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम’ का मूल उद्देश्य प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल को एकीकृत करते हुए सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल की ओर अग्रसर होना था. इस कार्यक्रम के मुख्यत: तीन पहलू हैं. पहला, मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति का इलाज, दूसरा पुनर्वास और तीसरा मानसिक स्वास्थ्य संवर्द्धन और रोकथाम.

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति
करीब तीन दशक बाद, अक्टूबर 2014 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति की घोषणा हुई. इसके बाद ‘मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017’ अस्तित्व में आया. मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में इसे मील का पत्थर कहा जा सकता है. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य मानसिक रोगियों को मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करना है. यह अधिनियम मानसिक रोगियों के गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार को भी सुनिश्चित करता है. इसमें साफ-साफ कहा गया है कि आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति को मानसिक बीमारी से पीड़ित माना जाएगा एवं उसे भारतीय दंड संहिता के तहत दंडित नहीं किया जाएगा, जबकि पूर्व में इसे अपराध माना जाता था और इसके लिए एक वर्ष कारावास की सजा का प्रावधान था. एक औऱ अच्छी बात यह है कि इस अधिनियम में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले सभी मनोरोगियों को निशुल्क इलाज का भी अधिकार दिया गया है.

समय का तकाजा है कि सरकार के साथ-साथ समाज भी यह समझे कि मानसिक स्वास्थ्य कितना महत्वपूर्ण है. मानसिक अस्पतालों को भी ब्रिटिश वास्तुकला और ‘ब्रिटिश स्टाइल ऑफ प्रैक्टिस फॉर मेंटल पेशेंट्स’ के दायरे से बाहर निकलना होगा. मानसिक अस्पतालों की ‘पागलखाना’ की छवि को खत्म किया जाना बहुत जरूरी है. ऐसी सुविधाएं विकसित की जाएं, जहां मनोरोगी बिना किसी कलंक के डर यानी निश्चिंत होकर चहलकदमी कर सकें. इलाज की पद्धति भी ऐसी हो, जिसमें यदि मनोरोगी को भर्ती करना जरूरी ही हो, तो भी उसका अस्पताल प्रवास एक हफ्ते से ज्यादा ना हो, जैसा कि आमतौर पर पश्चिमी देशों में होता है. मानसिक अस्पतालों की छवि को मानसिक व्यायामशाला (मेंटल जिम) के तौर पर भी स्थापित करने का प्रयास इस दिशा में बहुत कारगर हो सकता है.

Tags: World mental health day

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